डोल ग्यारस कब है? dol gyaras, jaljhulni ekadashi kab hai 2023

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नमस्कार दोस्तों, कैसे हैं आप ऊपर दिए गए टाइटल से आप जान ही गए होंगे कि आज हम किस विषय पर बात करने वाले हैं तो चलिए हम आपको बताएंगे डोल ग्यारस के बारे में कुछ रोचक बातें।

राधा अष्टमी के बाद आने वाली ग्यारस तिथि को डोल ग्यारस कहा जाता है या फिर से विनायकी चतुर्थी के बाद आने वाली ग्यारस को डोल ग्यारस कहते हैं, मान्यताओं के अनुसार श्री कृष्ण जन्म के बाद उनकी माता यशोदा ने जन्म के ठीक 18 दिन पश्चात उनके जल पूजन घाट पूजा किया था। इसी दिन को द्वापर युग के समय से डोल ग्यारस के रूप में मनाया जाने लगा, सनातन परंपराओं के अनुसार यदि हम बात करें तो डोल ग्यारस को जल झूलनी एकादशी भी कहा जाता है। मान्यता तो यह भी है कि द्वापर युग के समय जब भगवान कृष्ण ने जन्म लिया था तब उनकी माता यशोदा ने उनके लिए एक विशेष डोल तैयार किया था तब से यह परंपरा चली आ रही है कि डोल ग्यारस के दिन भगवान का स्नान कराकर उन्हें वस्त्राभूषण तथा श्रृंगार के साथ उनका डोल तैयार किया जाता है, डोल ग्यारस की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है इस दिन भगवान विष्णु की कृपा तथा उनके आशीर्वाद से भक्तगण बड़ी ही श्रद्धा पूर्वक उनका व्रत पूरे विधि विधान से करते हैं, कई भक्तगण डोल ग्यारस को जलझूलनी एकादशी भी कहते हैं तो वहीं कहीं भक्तगण डोल ग्यारस भी कहते हैं। डोल ग्यारस भाद्रपद में शुक्ल पक्ष की पढ़ने वाली एकादशी को कहा जाता है इस बार यह एकादशी 25 सितंबर को मनाई जाएगी।

डोल ग्यारस का महत्व

वैसे अगर हम बात करें हिंदू सनातन पुराणों की तो इसमें कई सारे पर्वों का अपना एक अलग विशेष महत्व माना जाता है। अब हम बात करेंगे डोल ग्यारस (जलझूलनी एकादशी) के महत्व की। प्राचीन काल से चली आ रही डोल ग्यारस की मान्यता यह है कि इस दिन भगवान विष्णु अपनी शयन मुद्रा को करवट में परिवर्तित करते हैं इसलिए इसे परिवर्तनी एकादशी भी कहा जाता है, डोल ग्यारस पर भगवान श्री कृष्ण के बाल रूप का जलवा पूजन भी किया गया था। शास्त्रों तथा पुराणों के अनुसार डोल ग्यारस के दिन भगवान विष्णु ने अपना वामन स्वरूप भक्तों तथा राजा बलि के सामने प्रकट किया था उसके पश्चात राजा बलि का सर्वस्व दान में मांग लिया था, राजा बलि द्वारा भगवान विष्णु को अपना सर्वस्व दान करने के बाद भगवान विष्णु राजा बलि की भक्ति से इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने अपनी एक प्रतिमा को राजा बलि के पास सौंप दिया था। भगवान विष्णु की इसी लीला के चलते इसे वामन ग्यारस या वामन जयंती के नाम से भी जाना जाने लगा।

डोल ग्यारस का नाम डोल ग्यारस क्यों हुआ

आप में से काफी लोग यह प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहे होंगे जो हमने ऊपर हैडिंग में लिखा है तो चलिए हम आपको बताएंगे डोल ग्यारस को डोल ग्यारस क्यों कहा जाता है। प्राचीन काल से भक्तों द्वारा बड़ी श्रद्धापूर्वक मनाई जाने वाली भाद्रपद शुक्ल की एकादशी डोल ग्यारस भगवान श्री कृष्ण के बाल स्वरूप बालमुकुंद की लीला का एक अभिन्न अंग माना जाता है, डोल ग्यारस पर भक्तों द्वारा श्री कृष्ण जी के बाल स्वरूप बालमुकुंद को एक डोल में विराजमान करके उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है जिसे भक्तों द्वारा एकत्र होकर हर्षउल्लास के साथ बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, इसलिए इसे डोल ग्यारस भी कहते हैं।

डोल ग्यारस पर क्या करना चाहिए

डोल ग्यारस पर प्रातः काल सभी भक्त सुबह-सुबह अपने आराध्य श्री कृष्ण जी के मंदिर में विधिपूर्वक पूजा अर्चना करने जाते हैं, यदि आप सुबह के समय नहीं भी जा सकते हैं तब आप संध्या समय भी दर्शन कर सकते हैं। कई शहरों में भक्तगण डोल ग्यारस की रात्रि को भजन संध्या जागरण के साथ-साथ भगवान के बाल स्वरूप की झांकियां का प्रदर्शन भी करते हैं एवं पूरे परिवार के साथ रात्रि जागरण भी किया जाता है जिसे कई शहरों में रतजगा के नाम से भी जाना जाता है है। डोल ग्यारस के दिन भक्तगण अपने भगवान के लिए प्रसाद तथा भोग आदि का वितरण भी करवाते हैं।

डोल ग्यारस पूजा विधि

सनातन में किसी भी भगवान की पूजा बिना श्रद्धा तथा भाव के बिना पूर्ण नहीं मानी जाती, भगवान अपने भक्तों द्वारा की गई भावपूर्ण पूजा में ही प्रसन्न हो जाते हैं लेकिन हम यहां आपको डोल ग्यारस की पूजा विधि संक्षिप्त में बताएंगे।

  • डोल ग्यारस के दिन सभी भगवान विष्णु को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं तो यदि आप भी उनका व्रत रखते हैं तो आपको इस दिन चावल,दही तथा चांदी का दान अवश्य करना चाहिए।
  • प्रातःकाल सुबह जल्दी उठकर अपने नित्य दैनिक क्रियाओं के पश्चात स्नान के बाद मंदिर जाएं तथा भगवान को पालकी में बैठे हुए उनके दर्शन करें।
  • डोल ग्यारस पर आपको धूप,दीप पुष्प आदि को पूजा सामग्री में शामिल करना है।
  • यदि आप डोल ग्यारस को व्रत रखते हैं तब आपको उपवास के बाद रात्रि के समय श्री भगवान विष्णु जी का पाठ अवश्य करना है,कई मान्यताओं के अनुसार यह व्रत दशमी तिथि को शुरू होता है तथा जिसे द्वादशी तिथि पर पूर्ण माना जाता है
  • आप डोल ग्यारस पर भगवान गणेश और उनकी माता गौरी जी की पूजा अवश्य करें।
  • यदि आपके शहर में भी देवी देवताओं को नदी तालाब के किनारे ले जाते हैं, तथा वहां उनकी पूजा अर्चना करते हैं तब संध्या के समय आप वहां अवश्य जाएं और उन प्रतिमाओं का दर्शन तथा पूजा विधि विधान पूर्वक अवश्य करें।

डोल ग्यारस व्रत का महत्व

डोल ग्यारस (वामन जयंती) एकादशी का महत्व भगवान श्री कृष्णा द्वापर युग के समय पांडवों के ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर को बताया था, भगवान का कहना है एकादशी व्रत सभी व्रत में महान होता है उसमें भी यदि बात की जाए एकादशी की तब डोल ग्यारस (जलझूलनी एकादशी) को सबसे बड़ा माना गया है अब हम इस व्रत के महत्व को समझेंगे।

  • डोल ग्यारस के दिन उपवास रखने से भक्तों के सभी दुखों का पूर्ण तथा नाश हो जाता है, भगवान कृष्ण का कहना है मनुष्य के समस्त पापों का नाश करने वाली एकादशी को परिवर्तनी एकादशी भी कहा जाता है।
  • जो भी भक्त किसी कारण से या बीमारी के चलते उपवास रखने में सक्षम नहीं है वह डोल ग्यारस की कथा मात्र सुनने से ही उनका उद्धार हो जाता है।
  • परिवर्तनी एकादशी (डोल ग्यारस) की पूजा तथा व्रत करने का पुण्य वाजपेय यज्ञ और अश्वमेध यज्ञ के बराबर माना गया है।
  • डोल ग्यारस के दिन भक्तगण भगवान विष्णु एवं श्री कृष्ण जी के बाल स्वरूप की पूजा पूरी विधि विधान से करते हैं जिसके प्रभाव से उन्हें सभी व्रत का पुण्य प्राप्त होता है।
  • वैसे तो सभी एकादशी व्रत का अपना-अपना अलग-अलग महत्व माना जाता है लेकिन कुछ एकादशी का महत्व सर्वाधिक माना गया है, डोल ग्यारस पर भगवान वामन की पूजा की विधि पूर्वक की जाती है,जो भी भक्त सच्चे मन से श्रद्धा पूर्वक डोल ग्यारस पर वामन भगवान की पूजा करते हैं उन्हें त्रिदेव पूजा का फल प्राप्त होता है।

तो यह थी हमारी डोल ग्यारस जलझूलनी एकादशी के बारे में कुछ रोचक जानकारी हम उम्मीद करते हैं आपको पसंद आई होगी, यदि आप कुछ हमसे पूछना चाहते हैं तो नीचे दिए गए कमेंट सेक्शन में आप अपनी राय जरूर रखें।

धन्यवाद।

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